प्रतिरोध का
सिनेमा: दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव
1-3 मार्च, 2013

सोच बदलने का
माध्यम है ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ : संजय काक
वाराणसी/ बनारस
फिल्म सोसाइटी तथा ‘द ग्रुप’ जन संस्कृति मंच के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित
‘प्रतिरोध का सिनेमा : दूसरा बनारस फिल्म महोत्सव’ का उद्घाटन छोटा नागपुर वाटिका,
अस्सी घाट में हुआ.
फिल्मकार संजय काक
ने अपने उद्घाटन वक्तव्य में ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ के प्रयास की प्रंशंसा करते हुए
कहा कि इस तरह की अर्थपूर्ण फिल्मों के लिए दर्शक तैयार करने हैं और इस तरह के
महोत्सव इसमें खासी भूमिका निभा सकते हैं. प्रतिरोध का सिनेमा सिर्फ मन बहलाने के
लिए नहीं है बल्कि यह सोच बदलने का एक माध्यम है. उन्होंने कहा कि कला के रसिक
चुटकी में पैदा नहीं होते वे तैयार किये जाते हैं. दिल्ली जैसे शहर में कड़ी मेहनत
के बाद हम डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए दर्शक वर्ग तैयार कर पाए हैं. लगातार होने
वाले ऐसे आयोजन समाज में एक स्थान बना रहे हैं और इसमें कई फिल्मकार विश्वनीयता के
साथ काम कर रहे हैं.
‘द ग्रुप’ के
राष्ट्रीय संयोजक संजय जोशी ने कहा कि यह आम जन का फिल्मोत्सव है जिसे हमने बहुत
खास तरीके से तैयार किया है. यह पूरा आयोजन छात्र-छात्राओं की सफल भागीदारी के
कारण ही संभव हुआ है.
इससे पूर्व
फिल्मोत्सव के संयोजक सौरभ महेश्वरी ने अतिथियों का स्वागत किया और बनारस फिल्म
सोसाइटी का संक्षिप्त परिचय दिया. उन्होंने बताया कि फिल्म सोसाइटी लगातार विस्तार
कर रही है. इस वर्ष इस अयोजन में बी. एच. यू., काशी विद्यापीठ के आलावा अन्य
कालेजों के छात्र-छात्राएं भी शामिल हुए. हमारा प्रयास है कि हम इन फिल्मो को लेकर
आम लोगों के बीच जायें.
इस अवसर पर
फिल्मोत्सव की स्मारिका का विमोचन भी किया गया. बलिया से आये लेखक रामजी तिवारी की
किताब ‘ओस्कर अवार्ड्स: यह कठपुतली कौन नचावे’ का भी विमोचन भी किया गया. तीन दिन
के फिल्मोत्सव के दौरान ‘सम्भावना कला मंच, गाजीपुर, बी.एच.यू. और विद्यापीठ के
छात्र- छात्राओं ने चित्रकला और फोटोग्राफ प्रदर्शनी भी लगायी है.
पहले दिन संजय काक
द्वारा निर्देशित फिल्म ‘माटी के लाल’ का प्रदर्शन किया गया. 120 मिनट की फिल्म
असुरक्षाओं के घोषित, खतरनाक और स्वप्निल इलाकों में विचरती है. मध्य भारत में
बस्तर, जहाँ माओवादियों के हथियारबंद दस्तों ने सरकार के लिए सबसे गंभीर चुनौती
खादी की है. ‘माटी के लाल’ एक तहकीकात है इंकलाबी सपनों और संभावनाओं का एक ऐसे
तथाकथित समय में जब वर्त्तमान यह दंभ भरता हैं कि भविष्य को उसने लील लिया है और
इतिहास बस एक किताबी बात है. दर्शकों ने इस फिल्म को बहुत सराहा. गोरखपुर फिल्म
महोत्सव में प्रदर्शन के बाद बनारस में इस फिल्म का यह दूसरा मौका था.बनारस
फिल्म सोसाइटी द्वारा आयोजित दूसरे बनारस फिल्म महोत्सव के दूसरे दिन की फिल्में
‘स्त्री विमर्श’ से जुड़े तमाम विषयों पर केंद्रित रहीं. दिन की शुरुआत प्रसिद्द
फ़्रांसीसी निर्देशक रोबर्ट ब्रेसां की फिल्म ‘मुशेत’ के प्रदर्शन के साथ हुई.
फिल्म 60 के दशक के फ्रांस के एक छोटे से गाँव में रहने वाली चौदह साल की लड़की
मुशेत की कहानी कहती है. बलात्कार
की शिकार मुशेत अपनों के तानों से इतनी त्रस्त होती है कि पीठ सहलाने वालों के कदम
भी उसे जीने नहीं देते. शिकारी की बन्दूक से निकली गोली से छटपटाता हिरन उसके दर्द
को इतना उभर देता है कि जीने छह को दिल में समेटे वह नदी की गोद में समां जाती है.
यह फिल्म ना सिर्फ दूसरे विश्वयुद्ध के बाद के यूरोप की तस्वीर दिखाती है बल्कि एक
स्त्री के जीवन में आने वाली विपत्तियों से भी रूबरू कराती है. दुनिया की क्लासिक
फिल्मों में शुमार ‘मुशेत’ को दर्शकों ने खूब सराहा.
रीना मोहन द्वारा निर्देशित वृत्तचित्र
‘स्किन डीप’ आधुनिक शहरी युवतियों की पहचान से जुड़े सवालों को दर्शकों के सामने
रखती है. फिल्म स्त्री की आत्मीय छवि और उसकी स्वयं की पहचान की खोज के लिए होने
वाले संघर्षों पर केंद्रित है.

युवा निर्देशक नकुल साहनी द्वारा निर्देशित वृत्तचित्र
‘इज्ज़त्नागरी की असभ्य बेटियां’ खाप पंचायतों पर एक नयी बहस को जन्म देती है.
‘ऑनर किलिंग’ जैसे विषय पर केंद्रित यह फिल्म ऐसे ही मामलों में पीड़ित कुछ
परिवारों के प्रतिरोध को सामने लाती है.फिल्म पश्चिमी
उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान में खाप पंचायतों द्वारा जारी हिटलरी फरमानों
का आलोचनात्मक विश्लेषण करती है. युवा वज्ञानिक शैलेन्द्र सिंह की प्रस्तुति
‘जैव विविधता और गंगा के पारिस्थितिक चुनौतियाँ’ ने दर्शकों को गंगा प्रदुषण से
जुड़े कुछ नए पहलुओं से अवगत कराया. इस प्रस्तुति के ज़रिये गंगा के कशेरुकियों के
सरंक्षण के प्रयासों, उनकी स्थिति, उनके महत्व और सामुदायिक सहभागिता की आवश्यकता
जैसे बिंदुओं पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया.
अंतिम
दिन की शुरुआत संजय मट्टू की कहानियों की प्रस्तुति के साथ हुई. रोचक और दिलचस्प
कहानियों की प्रस्तुति का खासतोर से बच्चों ने भरपूर आनंद उठाया. इस प्रस्तुति के
लिए बनारस के आधा दर्जन से अधिक स्कूलों के बच्चे शामिल हुए. कहानियों की
प्रस्तुति का खास पक्ष यह था कि सभी कहानियां एकतरफा के बजाये बच्चों संवाद
स्थापित करती नज़र आयीं. तकरीबन एक घंटे की प्रस्तुति में संजय मट्टू ने बताया कि
कैसे अच्छी अदायगी से बच्चों के विचार बदले जा सकते हैं और उनके अंदर मूल्य
स्थापित किये जा सकते हैं.

राजन
खोसा निर्देशित फिल्म ‘गट्टू’ भी बच्चों को बखूबी पसंद आई. यह फिल्म उत्तराखंड के
रुड़की जिले के नौ साल के किशोर की कहानी है, जो अपने चाचा की कबाड़ की दुकान में
काम करता है. यह फिल्म बालमन के भीतर चल रही उठापटक को बखूबी दर्शाती है. फिल्म
गट्टू न्युयोर्क फिल्म फेस्टिवल में सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में भी नामांकन
प्राप्त कर चुकी है.
आखिरी
दिन की तीसरी प्रस्तुति गुरविंदर सिंह द्वारा निर्देशित ‘अन्हे घोरे द दान’ रही.
यह फिल्म पंजाब की हवेलियों और झूमते सरसों के खेतों वाली बोलिवुडिया तस्वीर से
अलग जातिवाद से ज़हर से जूझते पंजाब के गावों के छोटे और दलित किसानों की व्यथा को
आवाज़ देती है. यह फिल्म पंजाबी के उपन्यासकार गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास
पर आधारित है. फिल्म किसान-जीवन की मुश्किलों की गहन पड़ताल करती है.
फिल्म महोत्सव
का समापन बीजू टोप्पो की फिल्म ‘प्रतिरोध’ के साथ हुआ. यह फिल्म रांची के निकट
नगड़ी गाँव में पछले दो वर्षों से चल रहे २२७ एकड़ कृषि भूमि अधिग्रहण के विरोध में
आन्दोलन को दर्शाती है. बीजू टोप्पो देश के पहले आदिवासी फिल्मकारों में से एक हैं
जिन्होंने लगातार किसान आंदोलनों पर फिल्में बनायीं हैं
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